Film Review: गांधी परिवार का फिल्मी रूपांतरण है 'यंगिस्तान'

फिल्म रिव्यूः यंगिस्तान
एक्टरः मरहूम फारुख शेख साहब, जैकी भगनानी, नेहा शर्मा, बोमन ईरानी, कायोजी ईरानी
डायरेक्टरः सैयद अहमद अफजल
ड्यूरेशनः 2 घंटे 13 मिनट
स्टारः 5 में 2.5
डिस्क्लेमरः इस फिल्म की कहानी के सभी पात्र भारतीय राजनीति से लिए गए हैं. मुख्य किरदार इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और राहुल गांधी को मिलाकर बनाया गया है. उसके हालात और तर्क कमोबेश वही हैं, जो गांधी परिवार के रहे हैं. ब्यूरोक्रैट उसी तरह एक्ट करते हैं, जैसे कभी इंदिरा गांधी के वक्त के ताकतवर और भरोसेमंद नौकरशाह पीएन हक्सर किया करते थे. यहां तक कि फिल्म में प्रणव मुखर्जी, एके एंटनी और मीरा कुमार जैसे किरदार भी नजर आते हैं. फिल्म का मुख्य किरदार अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता को किनारे कर भारत दर्शन के लिए जाता है, गरीब के घर में खाना खाता है और आखिर में यंग भारत के लिए मोबाइल डेमोक्रेसी का नारा भी देता है. बात-बात पर यूथ और चेंज की बात करता है. पूरी फिल्म के निष्कर्ष को सपाट लहजे में एक दर्शक की टिप्पणी उधार लेकर कहूं तो ये राहुल गांधी की पीआर एक्सरसाइज लगती है चुनाव से पहले. अब आगे पढ़ें...
यंगिस्तान चुनावी माहौल में आई ऐसी फिल्म है, जो सीधे-सीधे भारतीय राजनीति के बदलते स्वरूप को दिखाने की कोशिश करती है. हीरो अभिमन्यु कौल जापान में रहता है और एक गेम्स डिवेलपर है. साथ में उसकी लिव इन गर्लफ्रेंड अन्विता भी है. उनकी मस्ती भरी दुनिया में भूचाल आता है, जब अभिमन्यु के पिता भारत के प्रधानमंत्री कौल साहब का अचानक कैंसर के चलते देहांत हो जाता है. हालात ऐसे बनते हैं कि कौल साहब की पार्टी के तमाम ओल्ड गार्ड अभिमन्यु को पीएम बना देते हैं. तर्क वैसे ही रहते हैं, जैसे इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाते वक्त रहे थे. गूंगी गुड़िया है, आसानी से मैनेज कर ली जाएगी.
अभिमन्यु को जल्द ही समझ में आ जाता है कि भारत जैसे देश का पीएम बनना किसी कॉरपोरट जॉब की तरह नहीं है, जहां आप पर्सनल और प्रफेशनल को अलग-अलग रख सकते हैं. हालांकि यहां उसकी मदद के लिए वरिष्ठ नौकरशाह अकबर हैं, मगर फिर भी अभिमन्यु पहले हाफ में हड़बड़ाया सा रहता है. लिव इन रिलेशन विपक्ष और मीडिया के हाथ का हथियार बन जाता है और उसकी अपनी ही कैबिनेट के मंत्री उसे बस एक गुड बॉय समझते हैं, जिसे चुनाव तक के लिए सलीब पर चढ़ा दिया गया है.
मगर अचानक से अभिमन्यु चीजें अपने हाथ में लेने का मन बना लेता है. उसे यकीन है कि लिव इन गर्लफ्रेंड के साथ बिना शादी के बच्चा होने को यंग हिंदुस्तान समझेगा. इसी यंगिस्तान के लिए वह नीतियां बनाता है. वरिष्ठ बंगाली नेता को प्रेजिडेंट बना देता है. साउथ के एक अक्खड़ नेता जो कि वित्त मंत्री है, उन्हें मोरार जी देसाई सा ट्रीटमेंट दे किनारे लगा देता है और एक और नेता अजय ठाकुर रक्षा सौदों की दलाली में घिर किनारे हो जाते हैं. उनमें वीपी सिंह की छवि नजर आती है. यह बात और है कि वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले में आरोपी की नहीं, क्रूसेडर की भूमिका निभाई थी.
आखिर में लोगों तक सीधे पहुंचकर, भावनात्मक अपील कर और राजनीतिक दांव पेच अपना कर अभिमन्यु अपने यंगिस्तान के सहारे 272 का मैजिक फिगर पा लेता है. इस काम में मोबाइल फोन के जरिए वोटिंग जैसे क्रांतिकारी फैसले भी काम आते हैं. वह जींस पहनकर बदलाव लाता है और कहता है कि मैं न टोपी पहनता हूं और न ही पहनाता हूं.
फिल्म की कहानी बहुत ही फ्लैट है और इसमें उन राजनीतिक षड्यंत्रों को सतही ढंग से दिखाया गया है जो हमारे जटिल लोकतंत्र और इसकी सियासत को स्याह और सफेद बनाते हैं. फिल्म में विपक्ष कमोबेश नदारद है. ये सराहनीय हो सकता था कि किसी ने असल राजनीति का प्लॉट लेकर फिल्म बनाई. जैसे सुजीत सरकार ने मद्रास कैफे बनाई थी. मगर ट्रीटमेंट कमजोर होने के चलते यह कोशिश सिरे नहीं चढ़ पाई.
फिल्म में अभिमन्यु की अनुभवहीनता और अन्विता के गर्लफ्रेंड एटीट्यूड के चलते कुछ फनी सिचुएशन पैदा होती हैं, जिन पर पब्लिक खूब ठहाके लगाती है. एक बार पीएम रात के तीन बजे मटका कुल्फी खाने जाते हैं. दुकानदार (ब्रजेंद काला) पीएम को देख अभिभूत हो जाता है और वहीं जमीन पर हाथ जोड़ बैठ जाता है. मुझे वह दुकानदार नहीं बीता हुआ भारत नजर आता है, जो एक खास नाम और वंश के सामने ऐसे ही माईबाप आप ही हो वाला भाव लिए हाथ जोड़े बैठा रहता था.
एक्टिंग की बात करूं तो फारुख शेख साहब को पर्दे पर देखकर आंखें भर आती हैं. ये उनकी आखिरी फिल्म थी. और हमेशा की तरह एक बार फिर उन्होंने लाजवाब अभिनय किया है. शेख साहब. अल्लाह ने निश्चित ही आपको जन्नत बख्शी होगी.
जैकी भगनानी पर फिल्म में जाहिर तौर पर सबसे ज्यादा फोकस है. मगर इस रोल के तमाम शेड्स को वह पूरी तरह से निभा नहीं पाए हैं. अगर उनकी एक्टिंग दमदार होती तो फिल्म बेहतर बनती. अन्विता के रोल में नेहा शर्मा ने अच्छा काम किया है. फिल्म के बाकी किरदारों का चयन अच्छा है और उन्होंने अपना हिस्सा बखूबी निभाया है. फिल्म के गाने अच्छे हैं. पहला गाना पार्टी सॉन्ग टंकी हैं हम बीट पर झुमाता है. ताज तुम्हारा में भी अच्छी मेलोडी है.
फिल्म के डायरेक्टर सैयद अहमद अफजल ने दम दिखाया है.मगर उन्हें जैसा कि मैंने बार बार कहा, कहानी पर और ज्यादा मेहनत करनी चाहिए थी. बेहतर होता कि दूसरे किरदारों को भी ज्यादा फुटेज देते डायरेक्टर साहब.
फिल्म को एक टोटल मसाला फिल्म की तरह देखा जा सकता है. मगर उसके लिए आपको अपनी राजनीतिक सोच को किनारे रखना होगा, वर्ना वैसी ही टिप्पणी आएगी, जैसी डिस्क्लेमर में लिखी गई.